विद्यापति और उगना महादेव
*विद्यापति और उगना महादेव की कथा : भक्ति, करुणा और कृपा की अमर गाथा*
मिथिलांचल की धरती पर अनेक ऋषियों, कवियों और भक्तों ने जन्म लिया, परन्तु विद्यापति जैसा भक्त विरला ही होता है, जिसकी भक्ति ने स्वयं भगवान को अपने पास बुला लिया। यह कथा न केवल भगवान शिव के कृपालु स्वभाव की साक्षी है, अपितु यह दर्शाती है कि सच्ची प्रेमभक्ति के आगे देवताओं की भी वंदनशीलता अनिवार्य हो जाती है।
लोकविश्वास में प्रसिद्ध है कि भगवान शिव, विद्यापति की अखंड और आत्मगर्भित भक्ति से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने स्वयं उनके गृह-भृत्य बनने का संकल्प कर लिया। वे 'उगना' नामक एक साधारण ग्वाले के वेश में उनके घर आ पहुँचे और सेवा का दायित्व ग्रहण किया। कौन जानता था कि यह साक्षात् कैलासपति अपनी जटाओं और त्रिशूल को त्याग कर, भक्त के गृह में अपने को समर्पित कर रहे हैं?
एक दिन की बात है। तेज धूप में यात्रा करते हुए विद्यापति को तीव्र प्यास लगी। जल कहीं उपलब्ध न था। उन्होंने उगना से जल माँगा। उगना एक क्षण चुप रहा, फिर अपने केशों को झटकते हुए अपनी जटाओं से निर्मल गंगाजल निकालकर विद्यापति को अर्पित कर दिया। विद्यापति चकित रह गए। उन्होंने पूछा — "तुम कौन हो उगना? यह गंगाजल कहाँ से लाए?"
उगना ने मुस्कराकर कहा — "हम अहां के उगना…"
किन्तु इस घटना ने विद्यापति को भीतर तक विचलित कर दिया। वह समझने लगे कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं। यह तो दिव्यता का साक्षात् रूप है।
ईश्वर जब मनुष्य रूप में आते हैं, तो मानव जीवन की समस्त सीमाएँ उन्हें भी छूने लगती हैं। एक दिन उगना से कोई कार्य त्रुटिपूर्ण हो गया। विद्यापति की पत्नी को क्रोध आया और वह जलती लकड़ी से उगना को मारने दौड़ी। यह दृश्य देख विद्यापति व्याकुल होकर रोते हुए पत्नी से कहा — "यह कोई दास नहीं, यह स्वयं भगवान शिव हैं!"
उनके शब्दों से सारा वातावरण थम गया। जैसे समय ठहर गया हो।
तत्क्षण ही उगना मुस्कराए। उनका रूप बदलने लगा। भृकुटि पर चंद्रमा, मस्तक पर गंगा, कंठ में सर्पों की माला और शरीर पर बाघम्बर। यह वही थे — त्रिनेत्रधारी, पंचवक्त्र, करुणामूर्ति शिव!
विद्यापति दंडवत हो गए। नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। उन्होंने कहा —
"प्रभो! आपने मेरी गृह की शोभा बढ़ाई, अब इसे सूना क्यों छोड़ रहे हैं?"
भगवान शिव बोले —
"विद्यापति! तुम्हारी भक्ति ने मुझे वशीभूत कर लिया था, पर अब समय है कि तुम अपने भीतर के शिव को जानो, अब मैं लौटता हूँ।"
यह कहकर वे अन्तर्धान हो गए।
जहाँ भगवान शिव ने अपना दिव्य रूप प्रकट किया, वह स्थान आज ‘उगना महादेव’ के नाम से जाना जाता है। यह बिहार के मधुबनी जनपद के भवानीपुर ग्राम में स्थित है। श्रद्धालु आज भी वहाँ जाकर विद्यापति की भक्ति और शिव की कृपा का स्मरण करते हैं।
कहा जा सकता है कि
विद्यापति और उगना की कथा भारतीय भक्ति परंपरा का दिव्य अध्याय है, जिसमें साकार शिव को एक सच्चे भक्त की सेवा में झुकते देखा जा सकता है। यह हमें सिखाती है कि यदि भक्ति निष्कलंक, निष्कपट और आत्मनिष्ठ हो, तो स्वयं ईश्वर भी सेवक बनकर द्वार पर आ खड़े होते हैं। यह कथा केवल श्रद्धा नहीं, अपितु करुणा, प्रेम और आत्मा की पुकार का प्रतीक है — जो हर युग में जीवित है, और हर हृदय में घट सकती है।
विद्यापति की यह करुण पुकार मिथिलांचल में अभी भी सुनी जा सकती है -
उगना रे मोर कतय गेलाह।
कतए गेलाह शिब किदहुँ भेलाह।।
भांग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह।
जो हरि आनि देल विहँसि उठलाह।।
जे मोरा कहता उगना उदेस।
नन्दन वन में झटल महेस।
गौरि मोन हरखित मेटल कलेस।।
विद्यापति भन उगनासे काज।
नहि हितकर मोरा त्रिभुवन राज।।
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जय विद्यापति!
जय उगना महादेव!
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