शिव : शून्य से पूर्णता तक

 *"शिव  : शून्य से पूर्णता तक"*



शुरुआत वहीं से होती है, जहाँ कुछ भी नहीं होता...। जब सृष्टि नहीं थी, जब शब्द भी मौन था, जब काल का चक्र भी स्थिर था — तब भी शिव थे।

शिव का अर्थ ही है — कल्याण, शुभता, शांति और अनंत चेतना। वे न आदि हैं, न अंत।

वे न केवल एक देवता हैं, बल्कि संपूर्ण भारतीय दर्शन की आत्मा हैं।

शैव दर्शन का अर्थ है — शिव के माध्यम से सृष्टि, आत्मा और मोक्ष को समझने की कोशिश।

यह दर्शन कहता है — "शिव ही ब्रह्म हैं, और वही आत्मा भी हैं।"


शिव न कहीं बाहर हैं, न किसी मंदिर में बंद हैं। वे हर जीव में, हर कण में, हर श्वास में हैं।

वे निर्गुण भी हैं, सगुण भी।

वे ध्यान में स्थिर हैं — पर नटराज बनकर तांडव भी करते हैं।

वे भस्म रमाने वाले वैरागी भी हैं — और पार्वती के साथ गृहस्थ जीवन जीने वाले योगी भी।

शिव का रूप एक जीवंत प्रतीक है। शिव का हर रूप एक संदेश है -

त्रिनेत्र – ज्ञान, चेतना और भविष्य की दृष्टि।

गंगा जटाओं में – जीवन को संतुलित करने की कला।

सर्प हार में – भय से परे होने का प्रतीक।

चन्द्रमा – सौम्यता और शीतलता।

त्रिशूल – इच्छा, क्रिया और ज्ञान की शक्ति।

तुलसीदास जी शिव की स्तुति करते हैं : "नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्।"

अर्थात् – मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ जो सबके ईश्वर हैं, सब में व्याप्त हैं, और वेदों के भी पार हैं।

यह शिव का निर्गुण रूप है — वह जो शब्दातीत है, भावातीत है।

रावण द्वारा रचित शिवतांडव स्तोत्र में शिव का सौंदर्य और सामर्थ्य साथ-साथ दिखता है:  "जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले..."



डमरू की ध्वनि, गंगा की धारा, सर्प की माला — सब मिलकर शिव के प्रचण्ड तांडव को जीवन देते हैं।

यह तांडव केवल विनाश नहीं, बल्कि नई सृष्टि की शुरुआत है।

शिव सबसे सरल देवता हैं। उन्हें मंत्र नहीं चाहिए, विधि नहीं चाहिए, बस भक्ति चाहिए।

वे औघड़ हैं, भक्तवत्सल हैं।

एक बेलपत्र, एक जल की धार और एक सच्चा भाव — यही शिव की पूजा है।

इसलिए तुलसीदास ने कहते हैं : "शिव द्रोही मम दास कहावा, सो सपनेहुँ मोहि न भावइ भावा।"

जो शिव से द्वेष करता है, वह मेरा भक्त नहीं हो सकता।

कश्मीरी शैव परंपरा में कहा गया है "सोऽहम्" — मैं वही हूँ, मैं शिव हूँ।

यह दर्शन हमें बताता है कि मोक्ष कहीं बाहर नहीं — अंदर की पहचान में है। जब मन शांत होता है, जब आत्मा स्थिर होती है — तब शिव मिलते हैं।

शिव सिखाते हैं —ध्यान में ठहरना, वैराग्य में जीवन ढूँढना, क्रोध में भी करुणा रखना और विनाश में भी सृजन का बीज बोना।

वे कहते हैं —"मौन भी एक भाषा है, और शून्य में भी सब कुछ है।"

शिव को जानने के लिए शास्त्र नहीं, श्रद्धा चाहिए।

उन तक पहुँचने के लिए तीर्थ नहीं, सरल मन चाहिए।

क्योंकि शिव वहीं हैं, जहाँ भाव है। शिव वहीं हैं, जहाँ प्रेम है।**

"ॐ नमः शिवाय।"


*प्रस्तुति : डॉ. धनंजय कुमार मिश्र*



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