"रुद्राष्टकम्” – केवल स्तुति नहीं, एक आत्म-प्रस्फुटन है…
*“रुद्राष्टकम्” – केवल स्तुति नहीं, एक आत्म-प्रस्फुटन है…*
डॉ धनंजय कुमार मिश्र*
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श्रीरामचरितमानस के रचयिता महाकवि गोस्वामी तुलसीदास केवल राम के परमभक्त नहीं थे, वे आत्मज्ञानी संत थे, जिनके हृदय में राम और शिव समान भाव से निवास करते थे। "रुद्राष्टकम्" की रचना न केवल एक स्तुति है, यह तुलसीदास के अपने जीवन के एक गहन अनुभव की भावनात्मक परिणति है। मान्यता है कि जब तुलसीदास वाराणसी में श्रीकाशीविश्वनाथ के दर्शन हेतु आए, तो वहाँ उन्होंने भगवान शिव की भव्य स्वरूप को देखकर हृदय से प्रणाम किया। उनके मुख से स्वतः निकला — "नमामीशमीशान निर्वाणरूपं…"
और एक के बाद एक श्लोक, जैसे कोई भीतर की नदी उमड़कर बाहर बह निकली हो।
वे उस क्षण भाव-विभोर थे। आँखें अश्रुपूरित, स्वर में कम्पन और अंतरात्मा में शिव का साक्षात् अनुभव। शिव के विराट, निर्विकार, दयालु और सबको तारने वाले स्वरूप को जब उन्होंने प्रत्यक्ष अपनी चेतना में अनुभव किया, तब रुद्राष्टकम् का सृजन एक भावावेश बन गया।
शिवजी की कृपा से ही तुलसीदास को रामकथा की रचना का आदेश प्राप्त हुआ था। एक प्रसंग के अनुसार, तुलसीदास जब काशी में रामचरितमानस की रचना कर रहे थे, तब उन्होंने भगवान शिव से आशीर्वाद माँगा।
उन्होंने श्रीशिव-पार्वती संवाद को मानस में रखकर शैव वैष्णव ऐक्य का सार्थक प्रयास किया।रामचरितमानस के आरम्भ में भवानी-शंकर की वन्दना की —
"भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम्।।"
और उसी भाव की गूंज रुद्राष्टकम् में प्रतिध्वनित होती है। उनका मानना था "शिव बिना राम , राम बिना शिव का साक्षात्कार नहीं हो सकता।"इसलिए शिव-स्तुति उनके लिए राम-भक्ति की ही एक परम अभिव्यक्ति थी।
रुद्राष्टकम् तुलसी के आत्मसमर्पण का गीत है। अंतिम श्लोक —
"न जानामि योगं जपं नैव पूजां..."
– तुलसीदास के पूर्ण आत्मसमर्पण की घोषणा है।
वे कहते हैं, "मैं कुछ नहीं जानता, मुझे केवल आपके चरणों की शरण चाहिए।"
यह केवल विनय नहीं, सन्त की आंतरिक व्यथा और विराट चेतना के सामने लघुता की अनुभूति है। अद्वैत वेदान्त के शिवत्व की पुष्टि करते हैं — शिव वही हैं जो न करते हैं, न करवाते हैं, पर सर्वत्र हैं, सब में हैं। भक्ति की अद्भुत सौन्दर्याभिव्यक्ति तुलसी ने की है।
"तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं..."
शिव सौन्दर्य को उद्घाटित करता यह पद्य शिव के रूप और रसानुभूति के अद्भुत संयोग को भी प्रकट करता है। हिमश्वेत अंग, मस्तक पर बहती गंगा, ललाट में अर्धचन्द्र, गले में भुजंग — ये सभी शिव की तपस्विता, शमिता और दिगम्बरत्व को दर्शाते हैं।
करुणा और कृपा के अवतार हैं शिव।
"प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं..."
भास्वर तेज से युक्त शिव यहाँ केवल संहारक नहीं, करुणामूर्ति हैं। वे प्रचण्ड हैं, पर दयालु भी हैं। वे त्रिपुरासुर के संहारक हैं, पर शरणागत वत्सल भी हैं। इस दोहरे स्वभाव को तुलसीदास अत्यन्त कोमलता से दर्शाते हैं।
आध्यात्मिक अनुभूति का अन्तिम निवेदन "न जानामि योगं जपं नैव पूजां..."
यह श्लोक हर भक्त का स्वर है। वह भक्त जो स्वयं को अयोग्य मानता है, परंतु श्रद्धा और समर्पण में अपार है। यहाँ तुलसीदास एक याचक बनकर शिव के चरणों में निवेदन करते हैं — "मैं पूजा, जप, ध्यान नहीं जानता; केवल आपको जानता हूँ, इसलिए शरणागत हूँ।"
*रुद्राष्टकम् : एक सार्वकालिक साधना*
"रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं..."
यह केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि एक आश्वासन है। जो भी श्रद्धापूर्वक इस अष्टक का पाठ करता है, उस पर शम्भु कृपा करते हैं। यह भक्त और भगवान के मध्य का वह अनुभूत पुल है, जो शास्त्र और साधना के पार ले जाता है।
रुद्राष्टकम्, भक्ति और दर्शन का अनुपम संगम है। इसमें वेदांत की निर्गुण भावना भी है, पुराणों की सौन्दर्य-कल्पना भी और लोकभाषा की भावप्रवणता भी। तुलसीदास ने शिव को केवल पूजा नहीं, जीवन का अनुभव बना दिया है। यह स्तुति न केवल पाठ है, यह पथ है — जो शिव से शिवत्व तक की यात्रा कराता है। इस श्रावण मास में जब हर ओर "बोल बम" की गूंज है, "ॐ नमः शिवाय" की प्रतिध्वनि है, तब रुद्राष्टकम् का पाठ केवल श्रवण नहीं, आत्मानुभव बन सकता है।
रुद्राष्टकम् आज भी प्रासंगिक है। आज जब मनुष्य आडम्बर, भागदौड़, तकनीक और आधुनिकता में उलझा है, तब रुद्राष्टकम् एक शुद्ध आत्मा की पुकार बनकर उभरता है। इसमें न स्वार्थ है, न फल की कामना। केवल प्रेम, समर्पण और शरणागति का अमृत है।
रुद्राष्टकम् में वह शक्ति है जो मन को स्थिर करता है,अहं को भस्म करता है
और आत्मा को शिव से जोड़ने में सक्षम है।
निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि रुद्राष्टकम् न केवल गोस्वामी तुलसीदास की काव्यशक्ति का प्रमाण है, यह उनके आध्यात्मिक अनुभूतिपरक जीवन का सार है।
यह स्तुति हमें सिखाती है — "वाणी से नहीं, भावना से शिव मिलते हैं।"
श्रावण मास में जब हर ओर शिव का राग है, तब रुद्राष्टकम् की यह अन्त:कथा हमें प्रेरित करती है कि वास्तविक भक्ति आत्मा की पुकार है, शुद्ध हृदय की गुहार है।
प्रस्तुति : डॉ. धनंजय कुमार मिश्र,विभागाध्यक्ष संस्कृत विभाग ,सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका🙏
*गोस्वामी तुलसीदास कृत रूद्राष्टकम्*
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं
मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा
लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा।।3।।
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुंडमालं
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं
भजंतीह लोके परे वा नराणां।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो।।8।।
*रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।*
*ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।*
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