लोक प्रचलन में अशुद्ध प्रयोगों से भाषा की शुद्धता पर प्रभाव: एक भाषिक अनुशीलन

भूमिका भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं, अपितु एक संस्कृति, परंपरा और चिंतन की वाहिका होती है। किसी भी भाषा की शक्ति उसके व्याकरण और शुद्ध रूपों में निहित होती है। जब शुद्धता को त्याग कर "प्रचलन" को ही आधार मान लिया जाता है, तब भाषा की मूल आत्मा विकृत होने लगती है। 
--- 1. भाषा और व्याकरण का संबंध संस्कृत व्याकरण, विशेषतः पाणिनीय प्रणाली, भाषा को न केवल स्वरूप प्रदान करता है, अपितु उसके विकास की दिशा भी तय करता है। शुद्धता, क्रम और नियम ही भाषा की आत्मा हैं। -

-- 2. पाणिनीय सूत्रों का संक्षिप्त विवेचन 5.1.117 राष्ट्रापारावारघखौ – राष्ट्र, अपार, पार, आवार, घ, ख – इन शब्दों पर इयङ् प्रत्यय के प्रयोग का विधान। 5.1.120 इयङ् – जहाँ पूर्वपद में घ, ख आदि हो, वहाँ इयङ् प्रत्यय जुड़ता है। जैसे – राष्ट्र + इय → राष्ट्रिय --- 
3. भाष्यकारों की दृष्टि काशिका, सिद्धांत कौमुदी, महाभाष्य आदि में 'राष्ट्र + इय = राष्ट्रिय' को शुद्ध रूप में स्वीकार किया गया है। ‘राष्ट्रीय’ उच्चारण और प्रचलन से बना है, जो व्याकरण के नियमों के अनुरूप नहीं है। ---
 4. उदाहरणों का संग्रह 
  शुद्ध -    अशुद्ध प्रयोग 
  राष्ट्रिय -  राष्ट्रीय 
कैलास - कैलाश 
दम्पती - दम्पत्ति 
ॠषि - रिषि
शिक्षकेतर - शिक्षकेत्तेर
कर्त्तव्य - कर्तव्य 


  
 5. 'राष्ट्रीय' बनाम 'राष्ट्रिय' पाणिनीय सूत्रों के अनुसार 'राष्ट्र' में 'इयङ्' प्रत्यय लगने पर 'राष्ट्रिय' बनता है। 'राष्ट्रीय' केवल उच्चारण आधारित, लोक व्यवहार से उत्पन्न रूप है। इसे संस्थागत मान्यता भले मिल गई हो, किन्तु व्याकरण की दृष्टि से वह अशुद्ध है। --
- 6. भाषा शुद्धता की सांस्कृतिक आवश्यकता भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं, वह विचार, चिंतन और संस्कृति की संवाहिका है। जब भाषा के शुद्ध रूपों को उपेक्षित कर दिया जाता है, तब सामाजिक चेतना और बौद्धिक संवाद की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। ---
 7. समाधान और दिशा शिक्षकों, लेखकों, संपादकों, पत्रकारों को भाषा शुद्धता के प्रति सजग रहना चाहिए। पाठ्यक्रमों, प्रमाणपत्रों, शासकीय प्रयोगों में शुद्ध भाषा का उपयोग अनिवार्य किया जाना चाहिए। शुद्धता को व्यवहार में उतारना और अनुकरणीय बनाना ही भाषा सेवा का सच्चा स्वरूप है। ---
 8. उद्धरण > “शब्दों की शुद्धता ही विचारों की स्पष्टता को जन्म देती है।” — पं. रामचंद्र शुक्ल > “भाषा के माध्यम से संस्कृति का प्रवाह होता है, उसकी शुद्धता हमारी परंपरा की सुरक्षा है।” — डॉ. नागेंद्र > “चलन से नहीं, शास्त्र से भाषा का धर्म निर्धारित होता है।” — भट्टोजी दीक्षित --- 9. प्रतीकात्मक चित्र भाषा शुद्धता की रक्षा करते हुए लेखनी का प्रतीकात्मक चित्र (प्रस्तुत है एक प्रतीकात्मक छवि) --- 
 संदर्भ ग्रंथ और स्रोत 
1. अष्टाध्यायी – पाणिनि
 2. महाभाष्य – पतंजलि 
3. काशिका वृत्ति – जयादित्य व वामन
 4. सिद्धांत कौमुदी – भट्टोजि दीक्षित 
5. निरुक्त – यास्क 
6. शब्दकल्पद्रुम – राजा राधाकान्त देव 
7. वाचस्पत्यम् – ताऱानाथ तर्कवाचस्पति 
8. आधुनिक हिन्दी व्याकरण – डॉ. हरिहर झा 
9. संस्कृत वाक्यविन्यास – डॉ. शशिप्रभा कुमार 10. राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के प्रकाशन, दिल्ली --

- निष्कर्ष -   लोक में प्रचलित होने मात्र से कोई रूप शुद्ध नहीं हो जाता। "चलता है" मानसिकता भाषा को सजीव नहीं बनाती, बल्कि उसे विकृत कर देती है। हमें पाणिनीय अनुशासन, भाषिक मूल्यों और संस्कृति की गरिमा की रक्षा के लिए भाषा की शुद्धता को महत्व देना ही होगा। ---

 लेखक विवरण 
डॉ. धनंजय कुमार मिश्र 
विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका, 
झारखण्ड ---814101

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