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Showing posts from August, 2025

कहानी: अंतिम आशा

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 कहानी: अंतिम आशा डॉ. धनंजय कुमार मिश्र ---------------- नेहा की आँखें थकी हुई थीं, चेहरा उदास और कपड़े धुले हुए होकर भी पुराने थे। परंतु इन सबसे अधिक फीका था उसका वह सपना, जो वर्षों से पालती आई थी एक अदद सरकारी नौकरी। यह नौकरी कोई विलास नहीं थी, बल्कि एक तिनके जैसी डूबते घर की नाव के लिए अंतिम सहारा थी। घर की हालत ऐसी थी कि दीवारें तक उधारी में जीती थीं। एक छोटा-सा आँगन, जिसमें एक तरफ टूटी हुई चौकी पड़ी थी, और दूसरी ओर पिता गोविन्द सिन्हा का खाँसता हुआ शरीर। नेहा जब रात में पढ़ती थी, तो उसकी भाभी माया जिसकी विद्या बस चूल्हे तक ही थी - ताने देने लगती, “दिन भर किताबों से चिपकी रहती है। भइया तो छत पर सीमेंट गिन रहे हैं, और मैडम यहाँ अफसर बनने चली हैं!” नेहा चुप रहती। चूल्हा जलाने से पहले वह अपने अन्दर जल चुकी होती थी। रामू, उसका भाई, जो पिता की उम्मीदों का पहला दीपक था, अब बुझे हुए दीयों में शामिल था। ठेकेदारी में उसका भविष्य ऐसा फँसा कि आज उसने अपना घर तक चौधरी टाइप बना लिया था। मोहल्ले में “रामू भइया” की दहाड़ थी, पर घर में पिता की दवाइयों तक की सुध नहीं थी। नेहा के लिए न उसका भाई ठहरा...

अनुपेक्षा (एक मौन प्रेम की कहानी)

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 *अनुपेक्षा* (एक मौन प्रेम की कहानी)      -डाॅ धनंजय कुमार मिश्र  पहाड़ी गाँव के उस पूर्वमुखी आँगन में तुलसी के पास जलता दीपक काँप रहा था। शिवानी ने धीरे से हाथ जोड़े — न कोई मंत्र, न कोई माँग। बस एक मौन निवेदन। स्कूल से लौटकर यह उसका दैनिक क्रम था। धीरे-धीरे घर में दाख़िल होती संध्या के साथ वह स्वयं भी किसी गहराते अतीत में उतर जाया करती थी। उसका घर अब शांत है, पिता का देहांत वर्षों पहले हो चुका, माँ अब बोलती नहीं — अधकचरे संवादों में बीते जीवन की जड़ें पकड़ने की चेष्टा करती हैं।शिवानी अविवाहित है। चालीस पार कर चुकी है।अब कोई प्रश्न नहीं करता — क्यों नहीं किया विवाह? गाँव की स्मृति ने भी अब उसके अकेलेपन को जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है। कोई बीस-बाईस वर्ष पहले की बात थी। गाँव में स्वास्थ्य शिविर लगा था।वहीं पहली बार अनिरुद्ध से भेंट हुई —जिला अस्पताल से आए युवा चिकित्सक। नितांत शालीन, संयमी, शिष्ट। उस दिन उसने एक बच्ची के हाथ में पट्टी बाँधते समय कहा था —“दर्द जब भीतर तक चला जाए, तो बाहर की मरहम देर से काम करती है।”शिवानी वहीं खड़ी थी — पहली बार सुनते हुए किसी ...

गेरुए वस्त्रों में जलती चेतना

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 *गेरुए वस्त्रों में जलती चेतना* प्रस्तुति : डॉ धनंजय कुमार मिश्र ,विभागाध्यक्ष संस्कृत ,एस के एम विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  ------------- हरिद्वार — गंगातट पर बसा एक नगर, जहाँ नदी नहीं, श्रद्धा बहती है; जहाँ जल में स्नान नहीं, आत्मा का परिष्कार होता है। ऐसे ही एक गंगातट के समीप, एक जीर्ण-शीर्ण आश्रम की परछाईं में, एक संन्यासी मौन तप में रत है। न कोई ताम्रपत्र, न कोई प्रसिद्धि; फिर भी, उसके शिष्यों के हृदयों में वह एक जीवित शास्त्र की तरह प्रतिष्ठित है। यह कथा उसी की है — एक संवेदनशील बालक से संन्यासी विद्वान बनने तक की, जिसमें भूख, त्याग, विद्या, आत्मसंघर्ष, और ब्रह्मानुभूति के अनेक सोपान हैं। दक्षिण भारत के एक छोटे गांव में जन्मा वह बालक अपनी माँ के अत्यंत स्नेहिल आँचल में पला। माँ संस्कृत की अनपढ़ उपासिका थीं, पर आत्मा से पूर्ण विदुषी — उनका दिन तुलसी और रामायण के पाठ से आरंभ होता और अंत श्लोकों की गुनगुनाहट में। बालक को वेदपाठ सिखाने की उनकी ललक, जैसे उस बालक के भाग्य का बीज थी। माँ के असमय निधन ने संसार का मानचित्र ही पलट दिया। पिता, जो स्वयं एक संन्यासभाव से ग्रसित गृहस...

संतप्त सावन की ईशा

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 *"संतप्त सावन की ईशा"* प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र ,विभागाध्यक्ष संस्कृत ,एस के एम विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  __________ हर साल सावन जब हरियाली की चादर ओढ़े धरती को शीतल करता, तब साहिबगंज में गंगा किनारे बैठे डॉ. सिन्हा की स्मृतियों की गहराइयों से एक चेहरा उभर आता — वह चेहरा जो कभी ज्ञान की प्यास लिए उनके सामने बैठा करता था… ईशा । उस दिन घाट पर बारिश की बूँदें गंगा की सतह पर हल्के-हल्के गिर रही थीं। एक चायवाले की आवाज़, कहीं दूर मंदिर की घंटियों की गूंज, और सामने बहती गंगा… डॉ. सिन्हा ने अपनी पुरानी डायरी खोली और लिखा : “कुछ लोग जीवन में आते हैं जैसे बादल — हल्के, चुपचाप, गहराई छोड़ जाते हैं… ईशा हेम्ब्रम वैसी ही थी।” ईशा झारखंड के पाकुड़ जिले के एक उपेक्षित आदिवासी गाँव की लड़की थी। जन्म से संताल, धर्म से ईसाई। पिता एलेक्स हेम्ब्रम, एक मेहनतकश साक्षर पुरुष, जो पास की कोयले की खदान में बतौर बाबू काम करते थे। माँ सोनामुनी सोरेन — एक मिट्टी सने हाथों में ममता का दूध समेटे नारी, जो हर रविवार चर्च की  प्रार्थना सभा में जाती और फिर जंगल की ओर जलावन बीनने चली जाती। घर छोट...

बाबा भोलेनाथ को प्रिय है बेलपत्र

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 *बाबा भोलेनाथ को प्रिय है बेलपत्र* डॉ. धनंजय कुमार मिश्र (विभागाध्यक्ष, संस्कृत, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका) --- श्रावण मास भारतीय जनमानस में आस्था, श्रद्धा और शिवत्व का अनुपम संगम है। वर्षा की पहली बूँदों के साथ ही जब धरती हरियाली से आच्छादित होती है, तब भक्तों का मन बाबा भोलेनाथ की भक्ति में डूब जाता है। जल, वायु, वनस्पति और चेतना — सब कुछ जैसे "हर हर महादेव" की गूंज में एकरूप हो जाता है। इस मास में बेलपत्र का विशेष महत्व है — जो न केवल शिव को प्रिय है, बल्कि भक्त और भगवान के भावनात्मक सेतु का प्रतीक भी। *बेलपत्र का पौराणिक आधार* स्कन्दपुराण में वर्णित कथा के अनुसार, एक बार तपस्यारत माता पार्वती के पसीने की एक बूंद मंदराचल पर्वत पर गिरी। उसी स्थान पर बेलवृक्ष उत्पन्न हुआ। अतः यह वृक्ष न केवल वनस्पति है, बल्कि शिव-पार्वती के दिव्य सान्निध्य का साक्षात प्रतीक है। बेल के जड़ में गिरिजा का वास है,तनों में माहेश्वरी,शाखाओं में दक्षिणायनी और पत्तियों में पार्वती स्वयं विराजती हैं। इसीलिए बेलपत्र केवल पत्ता नहीं, भक्ति का पुष्प है। इसे जब भक्त श्रद्धा से शिवलिंग पर अ...

द्वादश ज्योतिर्लिंग नाम स्मरण मात्र से भी होता है भक्त का कल्याण

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 *द्वादश ज्योतिर्लिंग नाम स्मरण मात्र से भी होता है भक्त का कल्याण* डॉ. धनंजय कुमार मिश्रविभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग,एस के एम विश्वविद्यालय, दुमका, झारखंड ------ --------- "न भूतो न भविष्यति" — यह वाक्य शिवतत्त्व की उस व्यापकता का परिचायक है, जो संपूर्ण सृष्टि के मूल में अंतर्निहित है। त्रिलोक के अधिपति, कालों के नियंता और पंचमहाभूतों के एकमात्र नियामक भगवान शिव अपने बारह दिव्य ज्योतिर्लिंग रूपों में आज भी उसी भव्यता से पूजित हैं, जैसे आदिकाल में थे। श्रद्धा और भक्ति के केन्द्र ये द्वादश ज्योतिर्लिंग, न केवल तीर्थ रूप में बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा के स्तम्भ हैं। इनका स्मरण मात्र प्राणियों के भीतर सुप्त ब्रह्मचेतना को जाग्रत करता है। जीवन की व्याधियों, तापों और विकारों से त्रस्त मनुष्य जब शिव के इन दिव्य रूपों का नामोच्चार करता है, तब वह लौकिकता से पार उतरकर आत्मिक शांति का अनुभव करता है। पुराणों, विशेषतः शिवपुराण और स्कन्दपुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंगों की महिमा का विशद उल्लेख मिलता है। शिव का प्रत्येक रूप — चाहे वह सोमनाथ हो, महाकाल हो या विश्वनाथ — किसी न किसी गूढ़ तत्त्व ...

सोमवार को शिव उपासना महत्फलदायी

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 *सोमवार को शिव उपासना महत्फलदायी* डॉ. धनंजय कुमार मिश्र (विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका) ------------- सावन का महीना भारतीय सनातन परम्परा में शिवभक्ति का परम उत्सव है। यह केवल ऋतुओं का संधिकाल नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का आध्यात्मिक अवसर है। समस्त सृष्टि जब हरियाली से हर्षित होती है, तब भक्तजन शिवोपासना में लीन हो जाते हैं। विशेष रूप से सोमवार के दिन भगवान शिव की उपासना को अति फलदायक माना गया है।  शिव—आदिदेव हैं , अनादि और अनन्त हैं। भगवान शिव सृष्टि के आरम्भ से पूर्व भी थे और प्रलय के पश्चात् भी विद्यमान रहेंगे। वे 'स्वयंभू', अर्थात् स्वयंसिद्ध सत्ता हैं, जिन्हें किसी ने उत्पन्न नहीं किया। पुराणों में वे आदिदेव माने गए हैं — त्रिदेवों में ‘महादेव’ की उपाधि से विभूषित। उनके अंग-अंग में तत्त्वज्ञान समाहित है —  कंठ में कालकूट विष, मस्तक पर चन्द्रमा, जटाओं में गंगा और नेत्रों में ब्रह्माण्ड की अग्नि। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय निकले विष को जब देवता, दानव और मनुष्य कोई भी स्वीकार न कर सके, तब भगवान शिव ने उसे अपने कंठ ...

शिव-साधना : त्रिविध ताप शमन की आध्यात्मिक शक्ति

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 *शिव-साधना : त्रिविध ताप शमन की आध्यात्मिक शक्ति* डॉ धनंजय कुमार मिश्र  ------------- मनुष्य जीवन मूलतः संघर्ष का दूसरा नाम है। यह संघर्ष केवल बाह्य परिस्थितियों से नहीं, अपितु आंतरिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक स्तर पर भी निरंतर चलता रहता है। भारतीय चिंतन में इस जीवन-संघर्ष की पीड़ा को 'त्रिविध ताप' के रूप में जाना गया है— दैहिक, दैविक और भौतिक। इन तापों से ग्रस्त मानवता को मुक्ति देने में जो शक्ति सर्वाधिक सक्षम और करुणामयी मानी गई है, वह है शिव-साधना। शिव न केवल विनाश के देव हैं, वरन् वे कल्याण के प्रतीक, ताप-शमन के अधिष्ठाता और आत्मिक शांति के अव्यय स्रोत भी हैं। त्रिविध ताप जीवन-संघर्ष की त्रिकालबद्ध पीड़ा है। यह दैहिक, दैविक और भौतिक के नाम से भारतीय संस्कृति में विख्यात है। (क) दैहिक ताप : शरीर और मन के स्तर पर उत्पन्न पीड़ाएँ — रोग, शोक, ज्वर, मानसिक तनाव, विकार आदि — दैहिक ताप हैं। ये ताप नित्य मनुष्य को उसकी सीमितता का भान कराते हैं। भगवद्गीता (2.14) में कहा गया है — “मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥” इन क्षणिक तापों ...

नटराज : शिव का ब्रह्माण्डीय नर्तन*

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 *नटराज : शिव का ब्रह्माण्डीय नर्तन* प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र  विभागाध्यक्ष संस्कृत  सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  ________ नटराज — यह केवल शिव का एक नाम नहीं, बल्कि ब्रह्माण्डीय चेतना का नाद है। यह वह दिव्य प्रतीक है, जो न केवल नृत्य की पराकाष्ठा को दर्शाता है, बल्कि जीवन के उद्गम, विस्तार और संहार का भी गूढ़ बिम्ब प्रस्तुत करता है। ‘नटराज’ शब्द में समाहित है – ‘नट’, अर्थात् कला का विस्तार, और ‘राज’, अर्थात् उसका अधिपति। जब शिव नटराज रूप में प्रकट होते हैं, तो वे स्वयं ब्रह्माण्ड के विराट रंगमंच पर नृत्य करते हुए समस्त सृष्टि को गति, दिशा और चेतना प्रदान करते हैं। शिव का तांडव नृत्य दो स्वरूपों में प्रतिष्ठित है — रौद्र तांडव और आनन्द तांडव। पहला रूप, रौद्र तांडव, उनके प्रचंड क्रोध का प्रतीक है — जिसमें वे त्रिलोक में कंपन भरते हैं, यह संहार का नृत्य है, जिसमें समस्त जगत का विलय हो जाता है। इस रूप में वे रुद्र कहलाते हैं — वे जो रुला सकते हैं, हिला सकते हैं। दूसरा स्वरूप है आनन्द तांडव — जो शिव का नटराज रूप है। यह नृत्य जीवन के प्रस्फुटन का प...

*"मालती" (भारतीय नारी जीवन यात्रा)

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 *"मालती"* (भारतीय नारी जीवन यात्रा) प्रस्तुति : डॉ धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत ,सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  ------------ गोसाईं गांव की मिट्टी में एक सोंधी महक थी। वहीं एक छोटी-सी झोंपड़ी में ब्याह के बाद आई थी मालती। चौदह की उम्र में जब वह तेतरी गांव से ससुराल आई, तो ना साज-श्रृंगार की समझ थी, ना दुनियादारी की। बस थी तो एक अनकही मासूमियत, और भीतर तक समर्पित एक भारतीय स्त्री की छवि। पति राम तपस्वी सिंह—मिट्टी से जुड़ा, सीधा-सादा किसान। खेत में दिन भर हल जोते, शाम को सने हाथों से थाली में दो कौर खाए और चुपचाप सो जाते। कुछ सालों बाद मालती की गोद भरी—सोनू नाम रखा गया बच्चे का। आंगन में उसकी किलकारियां जब गूंजतीं, तो लगता जैसे घर के सूने कोने भी मुस्कुरा उठे हों। मालती के जीवन में फिर से उजाला आया। लेकिन गांव की हवा कब कैसी करवट ले ले, कोई नहीं जानता। गांव का ही भीमा—जो हर चौक-चौराहे पर खड़ा होकर सिगरेट फूंकता, लड़कियों पर फब्तियां कसता था—उसकी नजरें अब मालती पर टिकी थीं। वह जब कभी खेत जाती, या कुएं से पानी भरती, उसकी आँखें पीछा करतीं। एक दिन, सावन...

सावन में शिव-पूजन का कारण और महत्त्व*

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 *सावन में शिव-पूजन का कारण और महत्त्व* प्रस्तुति: डॉ. धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड  _______ भारतीय सभ्यता ऋतुओं के संग-संग चलती रही है। प्रत्येक मास, हर दिन, हर पर्व भारतीय जनमानस के लिए केवल तिथियों की गणना-पद्धति मात्र नहीं, बल्कि प्रकृति, परमात्मा और पुरुषार्थ के मध्य सामंजस्य की जीवंत परंपरा है। श्रावण मास, जिसे सावन के नाम से जाना जाता है, इसका सर्वाधिक धार्मिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक महत्त्व है। यह मास विशिष्ट रूप से भगवान शिव की आराधना को समर्पित है। जब आकाश में मेघ उमड़ते-घुमड़ते हैं, धरती भीगती है, वृक्ष पुलकित होते हैं और वातावरण सौंधी मिट्टी की गंध से भर उठता है—तब भीतर की चेतना भी किसी अपरिचित आवेग से भीग जाती है। और तभी, वह महाकाल शिव की ओर आकृष्ट होती है, जिनका स्वरूप स्वयं प्रकृति के पंचतत्त्वों का समाहार है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, श्रावण मास में ही देवों और दानवों द्वारा क्षीरसागर का मंथन हुआ था। मंथन से पहले कालकूट विष निकला, जो इतना भयानक था कि वह समस्त सृष्टि को नष्ट कर सकता था। तब सृष्टि की र...