‘‘ भारतीय काव्यशास्त्रों के मंगलाचरण एक विहगावलोकन’’




‘‘ भारतीय काव्यशास्त्रों के मंगलाचरण एक विहगावलोकन’’


   प्रत्येक शुभकार्य के प्रारम्भ में भगवान् का स्मरण करना सभी आस्तिकों में समान रूप से पाया जाता है। इसलिए ग्रन्थ के आरम्भ में भी किसी न किसी रूप में अपने इष्टदेवता का स्मरण किये जाने की परम्परा सारे भारतीय साहित्य में पायी जाती है  इसको ‘मंगलाचरण’ नाम से कहा जाता है। इस ‘मंगलाचरण’ अथवा भगवान् के नाम का स्मरण करने से कार्य सिद्धि के मार्ग में आने वाली विघ्न बाधओं के ऊपर विजय प्राप्त करने की क्षमता होती है। इसलिए विघ्नविघात को भी ‘मंगलाचरण’ का एक मुख्य प्रयोजन माना जाता है। ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए विधीयमान मंगलाचरण तीन प्रकार के होते हैं - नमस्कारात्मक, वस्तुनिर्देशात्मक एवम् आशीर्वादात्मक। भारतीय काव्यशास्त्र के प्रणेताओं ने अपने ग्रन्थों में मंगलाचरण की परम्परा का सम्यक् निर्वहण किया है। यहाँ हम प्रसिद्ध काव्यशास्त्रों के मंगलाचरण का विहगावलोकन करना चाहते हैं -

1.    भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र का मंगलाचरण - (नमस्कारात्मक)
  ‘‘प्रणम्य शिरसा देवौ     पितामीमहेश्वरौ।
  नाट्यशास्त्रं प्रवक्ष्यामि ब्रह्मणा यदुदाहृतम्।।’’ (अनुष्टुप् छन्द)
ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए विधीयमान मंगलाचरण-त्रय (नमस्कारात्मक, वस्तुनिर्देशात्मक एवम् आशीर्वादात्मक) में से प्रथम अर्थात् नमस्कारात्मक का प्रयोग करते हुए नाट्यशास्त्र के आदि श्लोक के रूप में लिखते हुए भरतमुनि कहते हैं कि ‘पितामह ब्रह्मा एवं महेश्वर शिव को सिर झुकाकर प्रणाम करके मैं भरत उस नाट्यशास्त्र का वर्णन करूँगा जिसे ब्रह्मा ने बतलाया था।

2.    आचार्य मम्मटकृत काव्यप्रकाश का मंगलाचरण -(नमस्कारात्मक)
  ‘‘नियतिकृतनियमरहितां ह्लादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्।
  नवरसरूचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति ।।’’ (आर्या छन्द)
 अपने ग्रन्थ काव्यप्रकाश के आरम्भ में आचार्य मम्मट ने  उपर्युक्त कारिका ‘मंगलाचरण’  के स्वरूप लिखी है जिसमें वाङ्मय की अधिष्ठातृ देवता और उसमें भी विशेष रूप से कवि भारती का इष्टदेवता के रूप में स्मरण करना उचित समझा है। अतएव ‘‘भारती कवेर्जयति’’ के रूप में उस कविप भारती का जय जयकार करते हुए कहते हैं - ‘‘ नियति के द्वारा निर्धारित नियमों से रहित केवल आनन्दमात्रस्वभावा, अन्य किसी के अधीन न रहने वाली नौ रसों के योग से मनोहारिणी काव्यसृष्टि की रचना करने वाली कवि की भारती (वाणी, सरस्वती) सर्वोत्कर्षशालिनी है।

3.     कविराज विश्वनाथकृत साहित्यदर्पण का मंगलाचरण - (नमस्कारात्मक) 
 ‘‘शरदिन्दुसुन्दररुचिश्चेतसि सा मे गिरां देवी।
  अपहृत्य तमः सन्ततमर्थानखिलान्प्रकाशयतु।।’’ (अनुष्टुप् छन्द)
अर्थात् शरद् कालीन चप्द्रमा के समान सुन्दर कान्तिवाली श्रुतिशास्त्र आगमादि प्रसिद्ध वह भगवती सरस्वती मेरे हृदय में विद्यमान अज्ञानान्धकार को नष्ट करके सम्पूर्ण अर्थों को अर्थात् वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ को सर्वथा प्रकाशित करे।

4.    आचार्य धनंजयकृत दशरूपक का मंगलाचरण  (नमस्कारात्मक)
    दशरूपककार आचार्य धनंजय ने परम्परा और शिष्टाचार का निर्वहण करते हुए अपने ग्रन्थ के आरम्भ में नमस्कारात्मक मंगलारण करते हुए दो पद्यों में भगवान् गणेश, विष्णु भगवान् और नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि को नमन किया है-
‘‘नमस्तस्मै गणेशाय यत्कण्ठः पुष्करायते।
मदाभोगघनध्वानो नीलकण्ठस्य ताण्डवे।।
दशरूपानुकारेण यस्य माद्ययन्ति भावकाः।
नमः सर्वविदे तस्मै विष्णवे भरताय च।।’’
अर्थात् -नीले कण्ठ वाले शिव के ताण्डव नृत्य करने पर मदजल की परिपूर्णता से गम्भीर तथा धीर ध्वनि वाला गणेश का कण्ठ मृदंग के समान आचरण करता है। उन भगवान् गणेश को नमस्कार है।  जिन  भगवान् विष्णु के मत्स्य-कूर्मादि दशावतारों के श्रवणादि से भावुक भक्त प्रसन्न होते हैं उन सर्वज्ञ भगवान् विष्णु बको नमस्कार हो तथा जिन महर्षि भरत के द्वारा निर्वृŸा दश नाटकादि रूपक भेदों के अवलोकन और पर्यालोचन से सहृदय सामाजिक प्रसन्न होते हैं उन भरतमुनि को भी नमस्कार है।

5.    आचार्य आनन्दवर्धनकृत ध्वन्यालोक का मंगलाचरण (आशीर्वादात्मक)
‘‘स्वेच्छाकेसरिणः स्वच्छस्वच्छायायासितेन्दवः।
त्रायन्तां वो मधुरिपोः प्रपन्नर्तिच्छिदो नखाः।।’’
ध्वन्यालोककार श्री आनन्दवर्धनाचार्य अपने ग्रन्थ के आरम्भ में आशीर्वचन रूप मंगलाचरण करते हुए कहते हैं कि - ‘‘ स्वयं अपनी इच्छा से नरसिंह रूप धारण किये हुए मधुरिपु अर्थात् भगवान् विष्णु के, अपनी निर्मल कान्ति से चन्द्रमा को लज्जित करने वाल,े शरणागतों के दुःख नाशन में समर्थ  ‘नख’ तुम सबकी रक्षा करें।’’
6.    राजशेखरकृत काव्यमीमांसा का मंगलाचरण - (वस्तुनिर्देशात्मक):-
‘‘ अथातः काव्यं मीमांसिष्यामहे यथोपदिदेश श्रीकण्ठः परमेष्ठिवैकुण्ठादिभ्यश्चतुःषष्टये शिष्येभ्यः।  राजशेखर ग्रन्थारम्भ करते हुए लिख्ते हैं कि ‘अब यहाँ से काव्य की मीमांसा (विवेचना) प्रारम्भ करते हैं। जैसा कि भगवान् श्रीकण्ठ शिव ने इस काव्य विद्या का सर्वप्रथम उपदेश परमेष्ठी, वैकुण्ठ आदि चैंसठ शिष्यों को किया था।
 
7.    पण्डितवर श्रीवामनविरचित काव्यालंकारसूत्राणि का मंगलाचरण- (नमस्कारात्मक)
‘‘प्रणम्य परमं ज्योतिर्वामनेन कविप्रिया।
 काव्यालंकारसूत्राणां स्वेषां वृत्तिर्विधीयते।।

8.    अग्निपुराण का मंगलाचरण
‘‘श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्।
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम्।।’’

’’’’’
डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र
अध्यक्ष स्नातकोŸार संस्कृत विभाग
संताल परगना महाविद्यालय, दुमका

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