संकटग्रस्त विश्व को जरूरत है आपसी सहयोग और भाईचारे की


                    डॉ धनंजय कुमार मिश्र 
                    अभिषद् सदस्य , दुमका 
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महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण मोहग्रस्त अर्जुन को समझाते हुए गीता का गंभीर ज्ञान दिया। द्वितीय अध्याय में भगवान् कहते हैं-   योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्तवा धनंजय।
     सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

अर्थात्  हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योग युक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

वास्तव में धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है। भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नाप तौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।
आज फिर गीता के इस बहुमूल्य ज्ञान को आत्मसात करने की जरूरत सारे विश्व को है। विशेष रूप से हम भारतीयों को तो अवश्य ही अपने धर्म ग्रंथों के मर्म को समझने और आत्मसात करने की प्रबल आवश्यकता है ।
वर्तमान विश्व की स्थिति भयावह है । महामारी का प्रकोप चरम पर है । सरकार अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रही है । हम जन समुदाय को अपने कर्तव्यों का निर्वहन सम्यक् रूप से करने की आवश्यकता है । दोषारोपण और परछिद्रान्वेषण से स्वयं को दूर रखते हुए विश्व हित में अपना काम करते रहना ही अभी धर्म है। *दो गज दूर* के मंत्र को  सदैव अनुशासित ढंग से अपनाते हुए मानव कल्याण के लिए कार्य करते रहने की जरूरत को स्वीकार करना है। निश्चित रूप से हम अपने लक्ष्य को हासिल करेंगे । अभी खतरा टला नहीं है । आपसी सहयोग और भाईचारे को बनाये रखने की महती आवश्यकता है ।
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