वोकल फाॅर लोकल अर्थात् - सादा जीवन उच्च विचार



डॉ धनंजय कुमार मिश्र 
दुमका 
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जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई भूख  है। दुनिया के हर आदमी को भूख सताती है और आटे-दाल से ही वह भूख शांत होती है। इसीलिए हर कोई आटे-दाल के जुगाड़ के लिए फिक्रमंद रहता है।  अपना पेट भरने या भूख मिटाने के लिए आटे-दाल का जुगाड़ करने को जरूरी माना जाता है। इसके लिए अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह के काम-धंधे और कारोबार करते हैं। लेकिन जब आटा-दाल जरूरत से ज्यादा लालच, लालसा और महत्वाकांक्षा की वजह बन जाता है और उसके नाम पर आदमी आदमियत को भूलकर, अपने सुख-चैन को मिटाकर एक अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है तो समस्या पैदा होती है। यह लालच और लालसा ही आदमी से तमाम तरह के उलटे-सीधे और अनुचित काम करवाती है। तमाम तरह की धूर्तता, धोखाधड़ी और हिंसा का कारण बनती है। आदमी की इसी हवस को देखकर हम आहत होते हैं। लगता है कि आदमी के अन्दर संतोष और सब्र नाम की चीज नहीं रही। जरूरत भर का जुगाड़ तो जरूरी है पर भोग-लिप्सा की तो कोई सीमा नहीं। आज हमारा समाज उपभोक्तावाद की गिरफ्त में है। उसकी भोग-लिप्सा अंतहीन होती जा रही है। और अपनी इसी भोग-लिप्सा के लिए समकालीन मनुष्य प्रकृति और संबंधों का अधिकाधिक शोषण-दोहन कर रहा है, जिससे एक विकृत और असंतुलित व्यवस्था बन रही है।

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