भारतवर्ष के महनीय आचार्य आदिगुरू शंकराचार्य






*भारतवर्ष के महनीय आचार्य आदिगुरू  शंकराचार्य*

 (जयन्ती विशेष)

डॉ धनंजय कुमार मिश्र
अध्यक्ष संस्कृत विभाग सह अभिषद् सदस्य
सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका (झारखण्ड)
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भारतीय पंचांग के अनुसार  वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को भगवान आदिगुरूशंकराचार्य का जन्म हुआ था। सारे सनातन धर्मावलंबी इस दिन को शंकराचार्य की जयंती के रूप में  मनाते  हैं । आदि गुरु शंकराचार्य ने कम उम्र में ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसके बाद मात्र बत्तीस वर्ष की अवस्था   में इन्होंने हिमालय में समाधि ले ली।
आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ीगांव में हुआ था। उनका जन्म दक्षिण भारत के नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में हुआ था।  माना जाता है कि भगवान शिव की कृपा से ही आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म हुआ। जब ये तीन साल के थे तब इनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बाद गुरु के आश्रम में इन्हें  छोटी उम्र में ही वेदों का ज्ञान हो गया। फिर ये भारत यात्रा पर निकले और इन्होंने भारत  के चार भागों  में चार पीठों की स्थापना की।  मान्यता  है कि इन्होंने तीन बार पूरे भारत की यात्रा की।
जिस तरह ब्रह्मा के चार मुख हैं और उनके हर मुख से एक वेद की उत्पत्ति हुई है। यानी पूर्व के मुख से ऋग्वेद. दक्षिण से यजुर्वेद, पश्चिम से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई है। इसी आधार पर शंकराचार्य ने  चार वेदों और अन्य वैदिक शास्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए चार मठों अर्थात्  पीठों की स्थापना की। ये चारों पीठ एक-एक वेद से जुड़े हैं। ऋग्वेद से गोवर्धन  मठ  (जगन्नाथ पुरी), यजुर्वेद से श्रृंगेरी मठ (रामेश्वरम)  सामवेद से शारदा मठ (द्वारिका) और अथर्ववेद से ज्योतिर्मठ (बदरीनाथ) में है। माना जाता है बदरीनाथ  स्थित मठ अंतिम  मठ है और इसकी स्थापना के बाद ही आदि गुरु शंकराचार्य ने समाधि ले ली थी।  भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता के लिए आदि गुरु  शंकराचार्य ने विशेष व्यवस्था की थी। उन्होंने उत्तर भारत के हिमालय में स्थित बदरीनाथ धाम में दक्षिण भारत के ब्राह्मण पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर भारत के पुजारी को रखा। वहीं पूर्वी भारत के मंदिर में पश्चिम के पुजारी और पश्चिम भारत के मंदिर में पूर्वी भारत के ब्राह्मण पुजारी को रखा था। जिससे भारत चारों दिशाओं में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से मजबूत हो रूप से एकता के सूत्र में बंध सके।
आदिगुरू शंकराचार्य ने दशनामी संन्यासी अखाड़ों को देश की रक्षा के लिए बांटा। इन अखाड़ों के संन्यासियों के नाम के पीछे लगने वाले शब्दों से उनकी पहचान होती है। उनके नाम के पीछे वन, अरण्य, पुरी, भारती, सरस्वती, गिरि, पर्वत, तीर्थ, सागर और आश्रम ये शब्द लगते हैं। आदिगुरू शंकराचार्य ने इनके नाम के मुताबिक ही इन्हें अलग-अलग जिम्मेदारियां दी।
इनमें वन और अरण्य नाम के संन्यासियों को छोटे-बड़े जंगलों में रहकर धर्म और प्रकृति की रक्षा करनी होती है। इन जगहों से कोई अधर्मी देश में न आ सके, इसका ध्यान भी रखा जाता है। पुरी, तीर्थ और आश्रम नाम के संन्यासियों को तीर्थों और प्राचीन मठों की रक्षा करनी होती है। भारती और सरस्वती नाम के संन्यासियों का काम देश के इतिहास, आध्यात्म, धर्म ग्रंथों की रक्षा और देश में उच्च स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना है। गिरि और पर्वत नाम के संन्यासियों को पहाड़, वहां के निवासी, औषधि और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया। सागर नाम के संन्यासियों को समुद्र की रक्षा के लिए तैनात किया गया।
 ब्राह्मण धर्म और संस्कृति के
अनुसार इन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। दक्षिण में पैदा हुए शंकराचार्य ने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और जीवन का अधिक भाग उत्तर भारत में बिताया। चार पीठों की स्थापना इनका उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद हैं। उपनिषद, ब्रह्मसूत्र  एवं गीता पर लिखे इनके भाष्य को ‘प्रस्थान-त्रयी’ के अंतर्गत रखा जाता है। शंकराचार्य अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान् व दार्शनिक थे। शंकराचार्य ने ईश्वर को पूर्ण वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया और साथ ही इस संसार को भ्रम या माया बताया। उनके अनुसार, अज्ञानी लोग ईश्वर को वास्तविक न मानकर संसार को वास्तविक मानते हैं। ज्ञानी लोगों का मुख्य उद्देश्य अपने आप को भम्र एवं माया से मुक्त करना और ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना होना चाहिए। आचार्य ने बुद्धि, भाव व कर्म, इन तीनों के संतुलन पर जोर दिया है।  परंपरा का निर्वाह करते हुए भी उनका लक्ष्य ‘सत्य’ का प्रतिपादन करना है। प्रश्नोत्तरी में कहे गए एक श्लोक से यह संकेत मिलता है कि पशुओं में भी पशु वह है, जो धर्म को जानने के बाद भी उसका आचरण नहीं करता और जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया है, फिर भी उसे आत्मबोध नहीं हुआ। आज आदिगुरू की जयन्ती पर कोटि कोटि नमन करते हुए हम उनके बताये मार्ग पर चलते हुए  विश्व में व्याप्त असमानता को दूर करने के लिए कार्य करें ।
जय शिव जय गुरु ।।

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