लोक आस्था का महापर्व छठ




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‘‘समाजस्य हितम् शास्त्रेषु निहितम्’’

           भारतवर्ष  विविधताओं और विभिन्नताओं का देश है। विविध परम्परा और सुसंस्कृत संस्कृति भारतवर्ष की पहचान है। प्राचीन आर्ष ग्रन्थ वर्तमान का मार्गदर्शन और भविष्य का निर्धारण करने में महती भूमिका का निर्वहण करते हैं। इन आर्ष ग्रन्थों में वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत और पुराण अतीत से आज तक हमारे जीवन पथ को आलोकित कर रहे हैं। इन ग्रन्थ-रत्नों में कर्मों की प्रधानता के द्वारा जीवन जीने की प्रेरणा दी गई है। हमारे कर्म सात्विक, शुद्ध और सुन्दर हों जिससे समाज का  कल्याण और मानवता का उत्थान होता रहे। प्रकृति और पर्यावरण के बिना मानव समाज का अस्तित्व ही नहीं अतएव उनके संरक्षण का सूक्ष्म संदेश भी आर्षग्रन्थों में निहित है। किसी ने ठीक ही कहा है ‘‘समाजस्य हितम् शास्त्रेषु निहितम्’’- अर्थात् समाज का हित शास्त्रों में निहित है। शास्त्र हमारे ज्ञानचक्षु का उन्मीलन कर गुरू की भाँति  हितैषी हैं।
        भारतीय शास्त्रों में कार्तिक मास को विशेष रूप सें रेखांकित किया गया है। भारतीय संवत्सर का आठवाँ चन्द्रमास और सातवाँ सौरमास कार्तिक कहलाता है। कृतिका नक्षत्र से युक्त हाने के कारण इस महीने का नाम कार्तिक पड़ा। ऐसी मान्यता है कि इस महीने में शीतल जल में डुबकी लगाने वाले पापमुक्त होकर अपना इहलोक और परलोक सुधारते हैं। भारतवर्ष में प्रतिवर्ष  कार्तिक प्रतिपदा से पूर्णिमा से तक आस्थावान जनसमुदाय सूर्योदय से पूर्व स्नान करते है और सूर्य को अध्र्य प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक पवित्र नदियों के किनारे भी श्रद्धालु जन पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ कार्तिक स्नान और अर्घ्यदान करते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार सूर्योदय से पूर्व जल में भगवान का तेज मौजूद रहता है, देवताओं का यह तेज पाप का शमन करने वाला होता है। प्रकृति की गोद में नदी के किनारे शीतलता, पवित्रता और सात्विकता का साक्षात्कार होता हैं। भक्त शास्त्रानुकूल आचरण करते हैं। शास्त्रों में कार्तिक स्नान एवं व्रत की बड़ी महिमा बताई गई है। कार्तिक की प्रत्येक तिथि पुण्य पर्व है। इस माह ही  कृष्ण त्रयोदशी से प्रारम्भ होकर शुक्ल द्वितीया तक पाँच दिनों के पर्व समूह धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धनपूजा और भैयादूज सम्पूर्ण भारतवर्ष में आस्था और उल्लास के साथ मनाया जाता है।

डूबते हुए सूर्य की भी होती है पूजा 

      पूर्वी भारत खास कर बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोक जीवन में कार्तिक मास में दीपावली के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की षष्ठी को अस्ताचलगामी सूर्य को अध्र्य प्रदान कर इस मान्यता को निरस्त करने की कोशिस की गई कि ‘उगते हुए सूरज को सभी पूजते हैं डूबते हुए सूर्य की कोई पूजा नहीं करता।’ इस कहावत को मिथ्या करने वाला तथा लोक जीवन में अत्यधिक श्रद्धा, विश्वास, शुद्धता, स्वच्छता और पवित्रता के साथ मनाये जाने वाला यह विशिष्ट पर्व ‘छठ पर्व’ के नाम विख्यात है। यह आंचलिक पर्व प्रदेश और देश की सीमा को तोड़ते हुए नेपाल, श्रीलंका, माॅरीशस, फिजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम, टोबैगो ही नहीं इंग्लैण्ड और अमेरिका तक पहुँच गया है। सच कहा जाए तो बिहार और पूर्वाचल के लोग जहाँ-जहाँ गए वहाँ वहाँ अपनी लोक संस्कृति के इस महान पर्व को साथ ले गए और यह पर्व विश्व प्रसिद्ध हो गया। छठ 'षष्ठी' का अपभ्रंश है। कार्तिक मास की अमावश्या को दिवाली मनाने के बाद मनाये जाने वाले इस चार दिवसीय व्रत की सबसे महत्त्वपूर्ण और कठिन रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाये जाने के कारण इसका नामकरण छठ पड़ा।  इसे ही डाला छठ, छठ पूजा, डाला पूजा, छठी माई पूजा, बड़का पर्व और सूर्य षष्ठी इत्यादि नाम से भी जानते हैं। सूर्योपासना का यह अनुपम लोक पर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा नेपाल की तराई के क्षेत्रों में मनाया जाता है। सभी वर्णो और जातियों के द्वारा समान आस्था और पवित्रता के साथ मनाया जाने वाला यह पर्व हिन्दु धर्मावलम्बियों के अतिरक्त इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा भी मनाते देखे जा रहे हैं भले ही इनकी संख्या कम क्यों न हो। धीरे धीरे विश्वभर में यह पर्व प्रचलित हो रहा है। छठ पर्व वर्ष में मुख्यतः दो बार मनाया जाता है। एक चैत्र में और दूसरा कार्तिक में। चैत्र का छठ चैती और कार्तिक का छठ कतिकी कहता है। कतिकी छठ अर्थात् कार्तिक शुक्ल षष्ठी का छठ पर्व ज्यादा व्यापक और प्रसिद्ध है।

सूर्योपासना अनुपम लोक पर्व

           छठ व्रत चार दिवसीय त्यौहार है। इसका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को ‘नहाय-खाय’ से और समापन कार्तिक शुक्ल सप्तमी को ‘पार्वण’ के साथ होता है। नहाय खाय से पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन सेन्धा नमक, घी से तैयार अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में ग्रहण कर व्रत का आरम्भ करते हैं। पंचमी तिथि को ‘खरना’ होता है। इस दिन व्रती दिनभर निर्जला उपवास कर शाम में चन्द्रोदय के बाद प्रसाद के रूप में खीर, पूरी ग्रहण करते हैं। इसमें समाज के लोग प्रसाद के लिए आमंत्रित होते हैं। स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। षष्ठी तिथि को छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ का विशेष महत्त्व है। इसके साथ ही चावल का लड़ुआ (लड्डू) और विभिन्न प्रकार के मौसमी फल प्रसाद के रूप में शामिल किया जाता है। व्रती लगातार निर्जला उपवास पर रहते हैं। शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था के साथ बाँस के सूप में अध्र्य सामग्री सजाया जाता है। परिवार और समाज के लोग व्रती के साथ अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट जाते हैं। घाट तक दण्ड भरते हुए भी कुछ व्रती जाते हैं। संभवतः यह परम्परा मनौती पूरी होने से सम्बन्धित है।

सामूहिक अर्घ्यदान 

 अन्ततः सामूहिक अर्घ्यदान  होता है। जल और दूध से विशेष रूप से अर्घ्य दिया जाता है। प्रायः इस मन्त्र से भगवान भास्कर को अर्घ्य दिया जाता है - ‘‘एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्प्य मां देव गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।’’  व्रत के चैथे और अन्तिम दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी के प्रातः उदीयमान सूर्य को अर्घ्य प्रदान किया जाता है। प्रातः कालीन अर्घ्य  में पिछली सारी प्रक्रिया अपनायी जाती है। अर्घ्यदान  के बाद श्रद्धालु वापस घर की ओर लौटते हुए पीपल के पेड़ में स्थित ब्रह्मबाबा की पूजा करते हैं। अन्त में दूध पीकर छत्तीस घण्टे के निर्जला उपवास का पार्वण कर व्रती अपना व्रत पूर्ण करते हैं। यह व्रत अधिकतर महिलाएँ करती हैं। कुछ पुरूष भी व्रत रखते हैं। व्रती को परवैतिन कहा जाता है। यह पूर्ण संयम का पर्व है। परवैतिन न केवल लगातार उपवास पर रहतीं हैं अपितु सुखद शय्या का भी त्याग करती हैं। फर्श पर कम्बल या चादर ही शयन के लिए उपयोग में लाया जाता है। कपडे बिना सिले हुए पहनने जाते हैं। प्रायः व्रती महिलाएँ साडी और पुरूष धोती का प्रयोग करते हैं।

प्रकृति के साक्षात्कार का सुखद संयोग

     छठ पर्व मूलतः सूर्य की अराधना का पर्व है। प्रकृति के साक्षात्कार का सुखद संयोग है।  प्राकृतिक लीलाओं को सुगमता पूर्वक समझने लिए प्रकृति में देवत्व की कल्पना की गई है। सूर्य  प्रकृति के साक्षात् देव हैं। सुबह के सूर्य की पहली किरण ऊषा और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण प्रत्यूषा को नमन कर और अर्घ्य  देकर प्रकृति के प्रति कृतज्ञता अर्पण का भाव है। वैदिक काल से ही भारत भूमि में सूर्योपासना होते आ रही है। निरूक्तकार यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को प्रथम स्थान पर रखकर इसकी महत्ता और उपयोगिता को स्पष्ट कर दिया है। विष्णुपुराण, भागवत् पुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण आदि पुराणों में सूर्योपासना की विस्तृत परम्परा वर्णित है। मध्यकाल आते आते लोक सामान्य में उपासना की यह परम्परा छठ पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। इसी परम्परा के कारण मानवीय रूप में सूर्य की मूर्तिपूजा प्रारम्भ हुई लगती है। अनेक जगहों पर अभी भी ये मंदिर हैं। यथा - औरंगाबाद के देव नामक स्थान पर स्थित प्राचीन सूर्य मन्दिर, राजगीर के बड़गाँव स्थित सूर्य मन्दिर, पटना के पंडारक और उलार का सूर्य मन्दिर, अरवल के निकट मधुस्रवा सूर्य मन्दिर इत्यादि। सूर्य आरोग्य के देवता भी माने जाते हैं। सूर्य की किरणें कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता धारण करती हैं। इस ज्ञान को भारतवर्ष के हमारे पूर्वज ऋषियों ने संभवतः जान लिया था और यही इस लोक पर्व छठ की उद्भव बेला रही हो। जन सामान्य के द्वारा अपने रीति-रिवाजों पर आधारित यह उपासना पद्धति पूर्णतः कृषक और ग्राम्य जीवन पर आधारित है। इसमें न किसी पुरोहित की आवश्यकता है और न ही विशेष आडम्बर की। नारियल, केला, गन्ना, शरीफा, आंवला, अदरख, हल्दी, सूथनी, शकरकन्द, टाभो निम्बू, मुँगफली, पानी फल आदि प्रसाद के रूप में सूर्य के प्रति समर्पित करने का भाव पूर्णतः सरल, स्वच्छ और सात्विक है। लोक गीत की मधुरता प्राकृतिक उपादानों से ओत-प्रोत होती है।

लोक कथाएँ व पौराणिक आख्यान

         छठ पर्व से सम्बन्धित कई लोक कथाएँ हैं। कुछ पौराणिक आख्यान भी मिलते है। एक  पौराणिक कथा के अनुसार राजा प्रियम्वद निःसंतान थे। महर्षि कश्यप ने राजा को पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र की प्राप्ति तो हुई पर मृतपुत्र। प्रियम्वद मृतपुत्र की अन्त्येष्टि के लिए श्मशान गये और विह्वल होकर प्राण त्यागने को तत्पर हो गये। उसी समय ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुई और राजा प्रियम्वद से कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के षष्ठांश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूँ। हे राजन् ! मेरी पूजा करो और अपनी प्रजा को भी पूजा के लिए प्रेरित करो। राजा प्रियम्वद ने देवी षष्ठी की पूजा की और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी। तभी से छठ पर्व मनाने की सुखद परम्परा की शुरूआत हुई।  एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना कार्तिक शुक्ल षष्ठी को ही हुई थी। इस दिन भगवान राम और जनकनंदिनी माता जानकी ने उपवास कर सूर्यदेव की उपासना की थी और सप्तमी को सूर्योदय के समय भगवान भास्कर को ताम्र कलश में सुगन्धित द्रव्य, पुष्प, जल और दूध से अध्र्य प्रदान कर अपने व्रत का पार्वण किया था। महाभारत में भी सूर्योपासना का वर्णन मिलता है। सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्योपासना की परम्परा प्रारम्भ की। कर्ण नित्य घण्टों में कमर तक पानी में खडे होकर सूर्य को अध्र्य प्रदान करते थे। कुछ कथाओं में पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी के द्वारा भी सूर्योपासना का वर्णन मिलता है।


 विश्व पटल का प्रमुख पर्व 
  
‘‘एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्प्य मां देव गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।’’

  सचमुच भारतीय लोक जीवन और लोक परम्परा का यह महत्त्वपूर्ण पर्व अपनी सादगी, पवित्रता, स्व़च्छता, भक्ति और आध्यात्म का अपूर्व संगम है। सूप, डलिया, मिट्टी के वर्तनों, ग्रामीण संस्कृति के अनाज से निर्मित प्रसाद और फल तथा सुमधुर लोक गीत लोक जीवन की मधुरता को प्रसारित करते हुए दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों से कहीं आगे निकल कर विश्व पटल का प्रमुख पर्व बन गया है।

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* डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र
विभागाध्यक्ष-संस्कृत विभाग सह अभिषद् सदस्य (सिंडिक)
सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड)


Comments

  1. जयतु भुवन भास्कर

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  2. ‘‘एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्प्य मां देव गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।’’

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