स्त्रियों का समाज में स्थान और संस्कृत में वर्णित स्त्रीविषयक चिन्तन



यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते      रमन्ते तत्र देवताः।  
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते   सर्वास्तत्राफलाः क्रिया।।
  
महर्षि मनु का यह श्लोक महिला सशक्तिकरण का बीजमन्त्र प्रतीत
होता है। मानव जीवन का रथ एक चक्र से नहीं चल सकता। समुचित गति के लिए दोनों चक्रों का विशिष्ट महत्व है। गार्हस्थ जीवन की अपेक्षा होती है- सहयोग और सद्भावना की। स्त्री केवल पत्नी नहीं होती, अपितु वह योग्य मित्र, परामर्शदात्री, सचिव, सहायिका भी होती है। भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति सदैव एक समान न होकर अत्यधिक आरोह-अवरोह से युक्त दिखाई देती है।  विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि तात्कालीन समाज में महिलाएँ अपनी सशक्त भूमिकाओं का निर्वाह करती थी। महिलाएँ वेदाध्ययन ही नहीं करती अपितु मन्त्रों की द्रष्टा भी थी। ऋग्वेद की अनेक सूक्तों की दर्शनकत्र्री स्त्रियाँ थी। ब्रह्मवादिनी ‘घोषा’ रचित ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्तों ( 39वाँ एवं 40वाँ ) को कौन नजरअंदाज कर सकता है। स्पष्ट है कि स्त्रियाँ शिक्षिता होती थी। लोपामुद्रा, सूर्या, विश्वावारा, अपाला ऋषिकाओं को कौन भूल सकता है। इनके द्वारा रचित सूक्त स्मरणीय एवं पठनीय बने हुए हैं। ‘वृहस्पति’ की पत्नी ‘जूहू’, विवस्वान की पुत्री यमी, ऋषिका श्रद्धा, सर्पराज्ञी केवल मंत्रों की रचयित्री ही नही अपितु कवयित्री भी थी। महिलाएँ कविताएँ करतीं, गायन करतीं तथा नृत्यकला को भी जानती थी। जहाँ तक रही बात उनके सशक्तिकरण की तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि नारी को ‘गृहिणी’ का पद प्राप्त था। पत्नी गृहिणी के पद से ही पति की आवश्यकताओं को पूरी करती थीं। ऋग्वेद में सूर्या के विवाह के अवयर पर नारी के गृहिणी पद का वर्णन अतीव सजीव है। ‘गृह में प्रवेश करो और गृहिणी बनकर सब पर शासन करो ’- यह उपदेश महिला सशक्तिकरण की एक झलक मात्र है। गृहिणी पति के साथ समस्त धार्मिक कार्यो का सम्पादन करती थी। गृहिणी के अतिरिक्त परमात्मा ने नारी को ‘मातृपद’ प्रदान किया। पारिवारिक जीवन में माता का पद अमृत के समान है। उपनिषद् ने ‘मातृ देवो भव’ का घोष कर महिला सशक्तिकरण का शंखनाद किया है। वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर नारी मातृत्वपद का मनोरम वर्णन है। यज्ञभूमि की तुलना माता से की गई है। ‘ जिस प्रकार पुत्र अपनी माता की गोद में आकर स्नेह पूर्वक बैठता है उसी प्रकार विश्वेदेव प्रेमपूर्वक यज्ञभूमि में आकर बैठते हैं।’ मातृपद के अतिरिक्त भारतीय नारी को सहचरी भी कहा गया है। निश्चित रूप से ऋग्वेद कालीन समाज में पति-पत्नी को एक दूसरे का पूरक कहा गया है। उनका साहचर्य देखकर कहा जा सकता है कि महिलाओं को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।  प्राचीन काल से ही स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी। स्त्री शिक्षा का महत्व सभी जानते थे। मण्डन मिश्र की पत्नी स्वयं परम विदुषी थी। कालिदास की पत्नी विद्दोतमा कैसी पण्डिता थी, यह प्रसिद्ध ही है। वैदिक परम्परा में स्त्री शिक्षा पुरूष शिक्षा की तरह अनिवार्य थी। ध्रुव सत्य है कि नारी शक्तिकरणकी आधारशिला शिक्षा हैै। शिक्षिता नारी, शिक्षिता माता, शिक्षिता भगिनि, शिक्षिता पत्नी, शिक्षिता दुहिता बनकर हीं भारतीय नारियों ने विश्वकल्याण की कल्पना की है।  भारतीय इतिहास के पन्ने नीरियों की गौरव गाथा से भरी हुई है। देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपने अद्वितीय युद्ध कौशल से राजा दशरथ को भी चकित कर दिया था। सीता की कहानी सभी जानते हैं। द्रौपदी ने अपनी योग्यता से पाण्डवों को प्रेरित किया। निश्चित रूप से प्राचीन भारतीय महिलायें सशक्त थी। शकुन्तला, अनुसूया, दमयन्ती, सावित्री आदि जगत् प्रसिद्ध महिलाओं का इतिहास बरबस हमें सोचने को विवश कर देता है। गार्गी, मैत्रेयी, अनसुया, अहिल्या, सीता, द्रौपदी, रूक्मिणी, तारा, मंदोदरी, कुन्ती, गान्धारी आदि न जाने कितनी नारियाॅ हो चुकी है जिसपर भारतवर्ष सदियों से गर्व करते आ रहा है। इनके पावन चरित्रों को गाते सुनते हम, उनके अपने-अपने कार्य क्षेत्र में विशिष्ट योगदान को नहीं सकते।  वैदिक काल से लेकर मध्यकाल के प्रारम्भिक अवस्था तक, भारतवर्ष में महिलाओं की स्थिति किसी भी मायने में पुरूषों से कमतर नहीं थी। वैदिक मंत्र - ‘सङ्गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ को मानते हुए स्त्रियाॅं पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रगति के पथ पर अग्रसर होती हुई, अपने सशक्तिकरण का मजबूत स्तम्भ प्रस्तुत कर, जगत् के सामने उपस्थित होती रही। कुछ तथाकथित विद्वान इतिहासकार गलत व्याख्या कर भले हीं हमारे अतीत पर कीचड उछालें, परन्तु यही सच है कि हमारी-भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति समान नारी समाज का अतीत गौरवमयी है।

Comments

Popular posts from this blog

संस्कृत साहित्य में गद्य विकास की रूप रेखा

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

गीतिकाव्य मेघदूतम्