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बोल बम यात्रा : श्रद्धा, साधना और शिवत्व का सामूहिक उत्सव

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 बोल बम यात्रा : श्रद्धा, साधना और शिवत्व का सामूहिक उत्सव प्रस्तुति : डॉ. धनंजय कुमार मिश्र (अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका) --- श्रावण मास का आगमन मात्र ही प्रकृति में भक्ति की सुवास भर देता है। नदियाँ गुनगुनाने लगती हैं, बादल शिव-ध्वनि में रमने लगते हैं और दिशाएँ “हर-हर महादेव” की प्रतिध्वनि में नत हो जाती हैं। ऐसे ही माह में आरंभ होती है— बोल बम यात्रा— एक तप, त्याग, त्राण और त्रिविध भक्ति का सामूहिक उत्सव, जो भारत की आध्यात्मिक चेतना का जीवंत प्रतीक है। *श्रद्धा की अग्नि-रेखा* झारखंड के देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम तक पहुँचने की यह यात्रा कोई सामान्य तीर्थयात्रा नहीं, यह तो आत्मा की तीव्र पुकार है। श्रद्धालु सुल्तानगंज से गंगा जल लेकर लगभग 105 किलोमीटर की दूरी नंगे पाँव तय करते हैं। शरीर थकता है, पाँव छिलते हैं, पर “बोल बम! हर-हर महादेव!” की दिव्य ध्वनि इस समस्त कष्ट को साधना में बदल देती है। यह यात्रा एकांत नहीं, यह तो सामूहिक साधना है — जहाँ हर कांवड़िया एक चलती-फिरती आरती बन जाता है। *पौराणिक गाथा : जब रावण ने अर्पित किया अपना सिर* बाबा बैद...

पावन सावन और शिव का स्वरूप

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 🔱 पावन सावन और  शिव का स्वरूप 🔱 — डॉ. धनंजय कुमार मिश्र श्रावण मास का आरम्भ होते ही भारतीय जनमानस की आस्था की धारा जैसे गंगोत्री से फूट पड़ती है। यह मास न केवल ऋतु-सौंदर्य का आलंबन है, वरन् परम तपस्वी, भूतभावन, आशुतोष भगवान रुद्र के प्रति समर्पण का चरम अनुष्ठान भी है। वर्षा की हर बूँद में भक्ति की गूंज सुनाई देती है। आकाश में उमड़ते घन, भूमि की शीतलता, वनस्पतियों का हरापन — ये सब प्रकृति की ओर से भोलेनाथ के स्वागत का भावमय अभिनंदन है। शिव को समर्पित यह महीना ऋचाओं, स्तुतियों, अभिषेकों और जलार्पणों से गुंजरित रहता है। विशेष रूप से रुद्राभिषेक और बेलपत्र अर्पण का जो विधान है, वह शिव-भक्ति की शुद्धतम परम्परा का परिचायक है। कहते हैं — "पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति" — जो भक्तिपूर्वक केवल जल ही अर्पित करे, उसे भी प्रभु स्वीकार करते हैं। सावन में रुद्राक्ष का विशेष महत्त्व है। यह केवल एक प्राकृतिक बीज नहीं, वरन् शिव के नेत्रों की अश्रुधारा का प्रतीक है। रुद्राक्ष धारण करना, उसे माला के रूप में जपना, शिव की उपासना का गूढ़ आध्यात्मिक पक्ष है। तांत्रिक परम्पराओं में...

लोक प्रचलन में अशुद्ध प्रयोगों से भाषा की शुद्धता पर प्रभाव: एक भाषिक अनुशीलन

भूमिका भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं, अपितु एक संस्कृति, परंपरा और चिंतन की वाहिका होती है। किसी भी भाषा की शक्ति उसके व्याकरण और शुद्ध रूपों में निहित होती है। जब शुद्धता को त्याग कर "प्रचलन" को ही आधार मान लिया जाता है, तब भाषा की मूल आत्मा विकृत होने लगती है।  --- 1. भाषा और व्याकरण का संबंध संस्कृत व्याकरण, विशेषतः पाणिनीय प्रणाली, भाषा को न केवल स्वरूप प्रदान करता है, अपितु उसके विकास की दिशा भी तय करता है। शुद्धता, क्रम और नियम ही भाषा की आत्मा हैं। - -- 2. पाणिनीय सूत्रों का संक्षिप्त विवेचन 5.1.117 राष्ट्रापारावारघखौ – राष्ट्र, अपार, पार, आवार, घ, ख – इन शब्दों पर इयङ् प्रत्यय के प्रयोग का विधान। 5.1.120 इयङ् – जहाँ पूर्वपद में घ, ख आदि हो, वहाँ इयङ् प्रत्यय जुड़ता है। जैसे – राष्ट्र + इय → राष्ट्रिय ---  3. भाष्यकारों की दृष्टि काशिका, सिद्धांत कौमुदी, महाभाष्य आदि में 'राष्ट्र + इय = राष्ट्रिय' को शुद्ध रूप में स्वीकार किया गया है। ‘राष्ट्रीय’ उच्चारण और प्रचलन से बना है, जो व्याकरण के नियमों के अनुरूप नहीं है। ---  4. उदाहरणों का संग्रह    शुद्ध -...

आज सीखते हैं षड्यंत्र

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 *आज सीखते हैं षड्यंत्र* षड्यंत्र= षट्+यन्त्र  षड्यंत्र शब्द प्राचीन संस्कृत में नहीं मिलता।माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति बौद्धों की तंत्र-मंत्र विधियों से हुई है। षड्यंत्र शब्द का अर्थ है - किसी छिपे हुए या हानिकारक उद्देश्य को पूरा करने के लिए गुप्त योजना बनाना। इसमें अक्सर छल या अवैध गतिविधियां शामिल होती हैं। षड्यंत्र में मूलतः षट् (छ:) यंत्र होते हैं - जारण(जलाना) मारण(मारना)  उच्चाटन, मोहन (वशीकरण), स्तंभन और विध्वंसन । षड्यंत्र दो या दो से ज़्यादा लोगों के बीच तय एक अवैध काम करने के लिए समझौता होता है। षड्यंत्र के दो प्रकार होते हैं - सिविल और आपराधिक। सिविल षड्यंत्र में, लोग दूसरों को धोखा देते हैं या उनके कानूनी अधिकारों के साथ धोखाधड़ी करते हैं। आपराधिक षड्यंत्र में, लोग भविष्य में कानून तोड़ने के लिए समझौता करते हैं। आधुनिक संस्कृत शब्द षड्यंत्र की व्युत्पत्ति क्या है? क्या यह संगठित षड्यंत्र के कुछ प्राचीन 6 उपकरणों की ओर इशारा करता है?  यह शब्द कैसे आया, क्योंकि हमें किसी भी संस्कृत शब्दकोश में इसका सटीक शब्द नहीं मिला। फिर भी, इस शब्द का उपयोग करने वाली...

संस्कृत व्याकरण के प्रमुख अव्यय

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Dr.D K MISHRA, HOD SANSKRIT  S K M UNIVERSITY DUMKA JHARKHAND  भाषा और व्याकरण का सम्बन्ध शाश्वत है। व्याकरण के बिना भाषा का शुद्ध प्रयोग नहीं किया जा सकता। संस्कृत जैसी शास्त्रीय भाषा तो व्याकरण के रथ पर सवार होकर ही चलती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संस्कृत भाषा की आत्मा उसके व्याकरण में निहित है। संस्कृत व्याकरण को शब्दानुशासन भी कहते हैं क्योंकि व्याकरण भाषा को अनुशासित करता है। अस्तु! संस्कृत भाषा में अव्यय उन शब्दों को कहते हैं जिनका रूप सातों विभक्तियों, तीनों कालों, तीनों वचनों और तीनों लिंगों में एक समान रहता है, कभी बदलता नहीं है - "सदृशं त्रिषु लिंगेषु, सर्वासु च विभक्तिषु। वचनेषु च सर्वेषु यन्नव्येति तदव्ययम्।। यहां हम कुछ ऐसे अव्ययों को अभी देखेंगे जिनका प्रयोग संस्कृत भाषा में आसानी से देखा जा सकता है - 1. अपि = भी 2. अथ = इसके बाद  3. अधुना = अभी 4. अद्य = आज 5. अद्यत्वे= आजकल  6. अकस्मात्= अचानक  7. अभित: = दोनों ओर  8. इतस्तत: = इधर - उधर  9. इव = तरह  10. ईषत् = कुछ  11. उभयत: = दोनों ओर 12. ऋते = विना 13. उच्चै: =...

संस्कृत की कालजयी रचनाएं

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Dr. D K MISHRA   भारतीय साहित्य और संस्कृति में संस्कृत भाषा का अप्रतिम योगदान रहा है। ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृत भाषा में अनेक कालजयी रचनाएं हैं, इन रचनाओं का महत्त्व बहुविध है। साहित्य , गणित, विज्ञान, दर्शन, धर्म ,अर्थ, काम आदि विषयों पर कुछ कालजयी ग्रन्थों और उनके रचनाकार के विषय में देखते हैं - 1. रामायण (आदि काव्य) - महर्षि वाल्मीकि  2. महाभारत - कृष्ण द्वैपायन व्यास  3. बुद्धचरितम् - अश्वघोष  4. अर्थशास्त्र - विष्णु गुप्त (कौटिल्य, चाणक्य) 5. मनुस्मृति - महर्षि मनु  6. अष्टाध्यायी - आचार्य पाणिनि  7. कामसूत्र - वात्स्यायन  8. योगसूत्र - पतंजलि  9. राजतरंगिणी - कल्हण  10. मेघदूतम् - कालिदास  11. अभिज्ञानशाकुन्तलम् - कालिदास  12. अमरकोश(नामलिंगानुशासनम्) - अमरसिंह  13.नाट्यशास्त्र - भरत मुनि 14. छ्न्द: सूत्र - आचार्य पिंगल  15. ज्योतिष शास्त्र - आचार्य लगध 16. आर्यभटीयम् - आर्यभट्ट  17. चरक संहिता - आचार्य चरक  18. सुश्रुत संहिता - आचार्य सुश्रुत  19. काव्य प्रकाश - आचार्य मम्मट...

रूपक और इसके भेद

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डॉ धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत,  एस के एम विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड                 संस्कृत साहित्य में दृश्यकाव्य के अन्तर्गत अभिनय का नट आदि में रामादि के स्वरूप का आरोप होने से दृश्यकाव्य को ही रूपक कहा जाता है। रूपक अभिनय के योग्य होता है। कहा भी गया है - ‘‘रूपारोपात्तुरूपकम्’       आचार्य धनंजय ने रूपक का विवेचन इस प्रकार किया है - ‘‘अवस्थानुकृतिर्नाट्यम् । रूपं दृश्यतोच्यते। रूपकं तत्समारोपात्।’’ अर्थात् अवस्था-अनुकरण नाट्य है। दृश्य काव्य के अन्तर्गत नाट्य आता है। अतः पात्रों को विभिन्न रंग-रूपों, भाव-भङ्गिमाओं आदि में देखा जाता है। चक्षुग्राह्य होने के कारण नाट्य ‘रूप’ नाम से भी जाना जाता है। मंचन के क्रम में पात्रों के विभिन्न भाव-भङ्गिमाओं, उनकी वेश-भूषादि का आरोप नट-नटी आदि में किया जाता है। अतएव नाट्य को ‘रूपक’ कहते हैं। तात्पर्य है - रूपक उसे कहते हैं जहाँ किसी चीज का आरोप किया जाय। नाट्य, रूप, रूपक - सभी एक ही अर्थ का द्योतन करते हैं। रूपक के मुख्यतः दस भेद हैं। कहा भी गया है - ‘‘नाटकं सप्रकरणं ...